1. एक नैन कवि मुहमद गुनी ।
सोई बिमोहा जेई कवि सुनी
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है। इस पंक्ति में कवि मुहम्मद जायसी कहते है कि एक आँख के होते हुए भी वे गुणवान है। उनकी वाणी ऐसी है कि जो भी उनकी काव्य को सुनता है वो मोहित हो जाता है।
2. चाँद जईस जग विधि औतारा ।
दीन्ह कलंक कीन्ह उजिआरा ||
जग सूझा एकड़ नैनाहॉ ।
उवा सूक अस नखतन्ह माहाँ ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि कहते है कि ईश्वर ने जिस प्रकार से चंद्रमा को सदोष लेकिन प्रभायुक्त यानि दीप्तिमान बनाया है। जिस प्रकार से चंद्रमा में दाग है फिर भी वह पुरे संसार को प्रकाशित करता है, ठीक उसी तरह से कवि में भी अवगुण होने के वाबजूद वह अपने ज्ञान के प्रकाश से दुनिया को प्रकाशित करते हैं।
3. जौ लहि अंबहि डाभ न होई ।
तौ लहि सुगन्ध बसाइ न सोई ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य “पद्मावत” के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि कहते है कि जबतक आम में नुकीली डाभ यानि मंजरी नही होती तबतक उसमें सुगंध नही आती है। यानी जब तक मनुष्य कष्ट नहीं चाहता वह अच्छा नहीं बन पाता है।
4. जौ सुमेरू तिरसूल बिनासा |
भा कंचनगिरि आग अकासा ||
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है कवि कहते है कि जबतक सुमेरू पर्वत को त्रिशुल से नष्ट नहीं किया गया तबतक वो सोने का नही हुआ
5. जौ लहि घरी कलंक न परा |
कॉच होई नहिं कंचन करा ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित कडबक से ली गई है। यह एक महाकाव्य “पद्मावत” के अंश है। प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि मलिक मोहम्मद जायसी जी कहते है, कि जबतक घरिया में सोने को गलाया नही जाता तबतक वह कच्चा धातु सोना में नही बदलता हैं।
6. एक नैन जस दरपन औ तेहि निरमल भाउ |
सब रूपवंत गहि मुख जोवहिं कड़ चाउ
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि कहते है कि वे एक आँख के होते हुए उनकी आंखे दर्पण की तरह निर्मल और स्वच्छ भाव वाले है और उनकी इसी गुण की वजह से बड़े बड़े रूपवान लोग उनके चरण पकड़ कर कुछ पाने की इच्छा लिए उनके मुख की तरफ ताका करते है ।
7. मुहमद कवि यह जोरि सुनावा |
सुना जो पेम गा पावा ||
जोरी लाड़ रकत कै लेई ।
गाढ़ी प्रीति नयनन्ह जल भेई ||
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि कहते है कि उन्होंने इस काव्य की रचना कर के सब को सुनाया है। जिसने भी उनकी कहानी को सुना उसे प्रेम की पीड़ा अनुभव हुआ । उन्होंने इस काव्य को ख़ून की लेई लगाकर जोड़ा है तथा गाढे प्रेम को आँसुओं के जल में भिंगोया है ।
8. औ मन जानि कबित अस कीन्हा ।
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा
कहाँ सो रतनसेन अब राजा ? ।
कहाँ सुआ अस बुधि उपराज ॥
कहाँ अलाउदीन सुलतान |
कहँ राघौ जेई कीन्ह बखान ||
क सुरू पदमावत रानी ।
कोइ न रहा, जग रही कहानी
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि मलिक मोहम्मद जायसी कहते है कि मैनें इस काव्य की रचना यह सोचकर किया ताकि मेरे ना रहने पर भी इस संसार में मेरी आखिरी निशानी बनी रहे। अभी ना ही रत्नसेन है, ना ही रूपवती पदमावत, ना ही बुद्धिमान सुआ और ना ही अलाउददीन फिर भी इनका यश की चर्चा कहानी के रूप आज भी है ।
9.धानि सोई जस कीरति जासू |
फूल मरै, पै मरै न बासू |
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा कवि कहते है कि वह पुरुष धन्य है जिसकी कीर्ति और प्रतिष्ठा इस संसार में है। उनका मान, सम्मान उसी तरह रह जाती है जिस प्रकार पुष्प के मुरझा जाने पर भी उसका सुगंध रह जाता है।
10. केई न जगत जस बेंचा,
केइ न लीन्ह जस मोल ? |
जो यह पढ़ कहानी,
हम सॅवरै दुइ बोल ॥२॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत के अंश है जिससे कवि कहते है कि इस संसार मे यश न तो किसी ने बेचा है और न ही किसी ने खरीदा है | कवि कहते है कि जो मेरे कलेज के खून से रचित कहानी को पढ़ेगा वह हमे दो शब्दो मे याद रखेगा ।
11) जागिए ब्रजराज कुंवर कंवल-कुसुम फुले |
कुमुद -वृंद संकुचित भए भृंग लता भले ॥
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है । माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती है कि हे ब्रज के राजकुमार ! अब जाग जाओ । कमल पुष्प खिल गए है तथा कुमुद भी बंद हो गए है। भ्रमर कमल-पुष्पो पर मंडाराने लगे है ।
12) तमचुर खग रोर सुनह बोलत बनराई ।
रांभति गो खरिकनि मे बछरा हित धाई ||
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सुरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है । माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती है कि हे ब्रज के राजकुमार ! अब जाग जाओ । सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे है और पक्षियो व चिड़ियो का कलरव प्रारंभ हो गया है । गोशाला मे गउएं बछड़ो के लिए रंभा रही है ।
13) विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी ।
सूर स्याम प्रात उठौ अंबुज-कर-धारी ॥
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सुरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित का रहे है | माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती है कि हे ब्रज के
14) जेवत स्याम नंद की कनियाँ |
कुछुक खात, कछु धरनि गिरावतत,
छबि निरखति नंद रनियाँ।
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सुरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ-पितृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है । श्री कृष्ण नंद की गोद में बैठकर भोजन कर रहे है। वे कुछ खाते है कुछ धरती पर गिराते है तथा इस मनोरम दृश्य को नंद की रानी यानि मॉ यशोदा देख रही है ।
15) बरी, बरा, बहु भांतिनि,
व्यंजन बिविध, अंगनियाँ
डारत, खात, लेत, अपनै कर,
रूचि मानत दधि दोनियाँ
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सुरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ पितृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है। श्री कृष्ण नंद की गोद में बैठकर भोजन कर रहे है। उनके खाने के लिए अनगिनत प्रकार के व्यंजन जैसे बेसन के बाड़े, बरियॉ इत्यादि बने हुए है। वे अपनी हाथों से कुछ खाते है और कुछ गिराते है । लेकिन उनकी रूचि केवल दही के पात्र में अत्यधिक होती है ।
16) मिश्री, दधि माखन मिरश्रत करि,
मुख नावत छबि धनियाँ ॥
आपुन खात, नंद मुख नावत,
सो छबि कहत न बनियाँ
प्रस्तुत पद वात्सल्य भाव के है और सुरसागर से संकलित है जिसमे सूरदास जी मातृ-पितृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है। श्री कृष्ण नंद की गोद में बैठकर भोजन कर रहे है। उन्हें दही अधिक पसंद है। वे मिश्री, दही और मक्खन को मिलाकर अपने मुख में डालते है यह मनोरम दृश्य देखकर मॉ यशोदा धन्य हो जाती है। वे खुद भी खाते है और कुछ नंद जी के मुँह में भी डालते है। ये मनोरम छवि का वर्णन करते नही बनता
17. जो रस नंद जसोदा बिलसत,
सो नहि तिहूं भुवनियाँ |
भोजन करि नंद अचमन लीन्हौ,
मांगत सूर जुठनियाँ |
प्रस्तुत पंक्तियां “पद” से लिया गया है जो वात्सल्य भाव के है। यह पद सुरसागर से संकलित है, जिसमे सूरदास जी मातृ-पितृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे है। श्री कृष्ण नंद की गोद में बैठकर भोजन कर रहे है। इस दिव्य क्षण का जो आनंद नंद और यशोदा को मिल रहा है यह तीनों लोंको में किसी को प्राप्त नहीं हो सकता। भोजन करने के बाद नंद और श्री कृष्ण कुल्ला करते है और सूरदास उनका जूठन मांग रहे है ।
18) कबहुक अंब अवसर पाइ
मेरिओ सुधि द्याइबी कुछ करून कथा चलाइ
प्रस्तुत पंक्तियॉ विनय पत्रिका के सीता स्तुति खंड से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास सीता को मॉ कहकर संबोधित करते हुए कहते है कि हे मॉ कभी उचित अवसर पा के आप प्रभु से कोई कारूणिक प्रसंग छेड का मेरी भी याद प्रभु को दिला देना ।
19. दीन सब अंगहीन,
छीन, मलीन, अघी अघाई
नाम लै भरै उदर एक
प्रभू दासी दास कहाई
जिसमें कवि तुलसीदास सीता को माँ कहकर संबोधित करते हुए कहते है कि माँ प्रभु को कहना कि आपकी दासी का दास बहुत ही गरीबी हालत में हैं। उसके अंग भी अब ठीक से काम नही कर रहे है। वह बहुत दुर्बल है। वह अस्वस्थ है। वह पूर्णत: पापों में लिप्त है और आपके नाम को याद करते हुए अपना पालन पोषण करता है ।
20. बुझिहैं सो है कौन कहिबी नाम दसा जानाइ |
सुनत रामकृपालु के मेरी बिगारिऔ बनि जाई ॥
सीता को मॉ संबोधित करते हुए कहते है कि माँ जब आप मेरी बात प्रभू से करेगीं तो वो पूछेगे कि आप किसकी बात कर रही है तो मेरा नाम और मेरी दशा प्रभू को बता देना क्योंकि अगर मेरी स्थिति अगर प्रभु को पता चल गई तो मेरे बिगड़े काम भी बन जायेगें।
21. जानकी जगजननी जन की किए बचन-सहाइ
तरै तुलसीदास भव तव – नाथ गुन-गुन गाइ ||
प्रस्तुत पंक्तियां कवि तुलसीदास द्वारा रचित “विनय पत्रिका” से ली गई है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते है कि हे मॉ! वैसे तो आप पूरे संसार की माँ है । आप अपनी कृपा पूरे संसार पर बरसाती है, लेकिन इसके बावजूद अगर आप मेरी सहायता करेगीं तो मै आपके नाथ का गुन गान करके भवसागर को पार करता जाउँगा ।
22) द्वार हौ भोर ही को आजु ।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही ते काजु ॥
प्रस्तुत पंक्तियॉ “विनय पत्रिका” से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे प्रभु ! मै आपके द्वार पर भोरे से सुबह से ही बैठा हूँ और भीख मागने वाले की तरह गिरगिड़ा रहा हूँ | हे प्रभु ! मुझे आपसे बहुतत कुछ नही चाहिए मै आपकी कृपा का एक कौर निवाला ही मांग रहा हूँ।
23) कलि कराल दुकाल दारून,
सब कभांति कुसाजु ।
कलि कराल दुकाल दारून,
सब कभांति कुसाजु ।
नीच जन, मन, उच,
जैसी कोढ़ में की खाजु |
पस्तुत पंक्तियॉ विनय पत्रिका से ली गई है जिसके महाकवि तुलसीदास अपनी दीन हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे प्रभु ! इस कलयुग में भयंकर अकाल पड़ा है और जो भी मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग है वह पापों से भरा हुआ है। प्रत्येक चीज में दुर्व्यस्थता ही दिखाई पड़ रही है । हे प्रभु मै एक नीच जीव हूँ जिसकी अभिलाषाएँ उँची है जो मुझे उसी प्रकार कष्ट देती है जैसे कोढ़ में खाज दुख दिया करती है। अत: हे प्रभू मेरी विनती स्वीकार करें और मुझे अपनी कृपा का मात्र एक निवाला प्रदान करें।
24) हहरि हिय में सदय बुझयो जाइ साधु- समाज |
मोहुसे कहूं कतहॅू कोउ तिन्ह कहयो कोसलराजु ||
पस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसके महाकवि तुलसीदास अपनी दीन हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे प्रभु ! हृदय मे अत्यंत पीड़ा के साथ मैने दयाशील साधू समाज से यह बात पूछा कि क्या मेरे जैसे पापी, दरिद्र के लिए कोई शरण है और उन्होने कृपा के सागर श्रीराम का नाम बताया।
25) दीन-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु ।
दानि दसरथराययके, तू बानइत सिरताजु ॥
प्रस्तुत पंक्तियॉ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे कृपासिंधु ! आपके अतिरिक्त कौन मेरी दीनता और दरिद्रता को दूर कर सकता है । हे दशयथ पुत्र श्रीराम ! आपके द्वारा ही मेरी बात बन सकती है ।
26) जनमको भूखो भिखारी हौ गरीबनिवाजु ।
पेट भरि तुलसिहि जेवाइय भगति-सुधा सुनाज
प्रस्तुत पंक्तियॉ “विनय पत्रिका” से ली गई हक जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे कृपासिन्धु ! हे गरीबो का दुख दूर करने वाले मै जन्म से ही भूखा भिखारी हूँ और आप दीनो के नाथ है । तुलसी जैसा भुखा भक्त आपके द्वार पर बैठा है मुझे अपनी भक्तिरूपी रस पिलाकर मेरे ज्ञानरूपी भूख को शांत करें
27) भगति विमुख जे धर्म सो सब अधर्म करि गाए
योग यज्ञ व्रत दान भजन बिनु तुच्छ दिखाए ।
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास ने कबीरवाणी की विशेषता पर प्रकाश डाला है। कवि कहते है कि जो व्यक्ति भक्ति से विमुख हो जाता है वह अधर्म में लिप्त व्यक्तियों की तरह कार्य करता है। कबीर ने भक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी क्रियाओं जैसे योग, यज्ञ, व्रत, दान, भजन सभी को तुच्छ कहा है।
28) हिंदू तुरक प्रमान रमैनी सबदी साखी ।
पक्षपात नहिं वचन सबहिके हितकी भाषी
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास ने कबीरवाणी की विशेषता पर प्रकाश डाला है।नाभादास कहते है कि कबीर ने हमेशा हिन्दू और मुसलमान को प्रमाण और सिद्धातं की बात कही है । कबीर पे कभी भी पक्षपात नही किया है उन्होने हमेशा सबके हित की बात कही है।
29) आरूद दशा हवै जगत पै,
मुख देखी नाही भनी ।
कबीर कानि राखी नही,
वणाश्रम षट दर्शनी ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास के द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास ने कबीर की विशेषता पर प्रकाश डाला है। नाभादास कहते है कि कबीर ने कभी भी मुख देखी बात नही करते है। अर्थात कभी भी पक्षपातपूर्ण बात नही कहते है। कबीर ने कभी भी कही सुनाई हुई बातों को महत्व नहीं दिया। उन्होनें हमेशा आँखों देखी बातों को ही कहते है। कबीर ने चार वर्ण, चार आश्रम और छह दर्शन किसी को भी महत्व नही दिया ।
30) उक्ति चौज अनुप्रास वर्ण अस्थिति अतिभारी
वचन प्रीति निवेही अर्थ अदभूत तुकधारी
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास ने सूरदास के विशेषताओं को बताया है। नाभादास कहते है कि सूरदास कि कविताएँ युक्ति, चमत्कार अनुप्रास वर्ण से भरी हुई होती है। सूरदास की कविताएँ लयबॅध और संगीतत्मक होती है। सूरदास अपनी कविता की शुरूआत जिन प्रेम भरी वचनों से करते है उसका अंत भी उन्ही वचनों से करते है।
31) प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी
प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी
जन्म कर्म गुन रूप सबहि रसना परकासी ||
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास जी ने सूरदास विशेषताओं को बताया है। नाभादास कहते है कि सूरदास की दृष्टि दिव्य है। सूरदास ने अपनी कविताओं में श्री के कृष्ण की लीला का वर्णन किया है। सूरदास ने प्रभू के जन्म कर्म गुण रूप सभी का अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर अपने वचनों से प्रकाशित किया है।
32) विमल बुद्धधि हो तासुकी,
जो यह गुन श्रवननि धेरै।
सूर कवित सुनि कौन कवि,
जो नहिं शिरचालन करै ।
प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से लिया गया है। जिसके माध्यम से नाभादास ने सू के विशेषताओं को बताया है। नाभादास कहते है कि जो भी व्यक्ति सूरदास द्वारा कही गई भगवान के गुणों को सुनता है उसकी बुद्धि विमल हो जाती है। नाभादास कहते है कि ऐसा कोई कवि नही है जो सूरदास की कविताओं को सुनकर उनकी बातों में हामी ना भरे ।
33) इन्द्र जिमि जंभ पर बाइव ज्यौं अंभ पर
रावन संदभ पर रघुकुल राज है।
प्रस्तुत पंक्तियां भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक कविता से ली गई है। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि भूषण शिवाजी के शौर्य का बखान करते है कि जिस प्रकार से इंद्र का यम पर, समुंद्र की अग्नि का पानी पर और राम दंभ से भरे रावण पर है। इन पंक्तियों में भूषण ने शिवाजी के शौर्य की तुलना इंद्र समुंद्र, अग्नि और राम के साथ की है ।
34) पौ बारिबाह पर संभु रतिनाह पर
ज्यौं सहस्त्रबाहू पर राम द्विज राज है ।
प्रस्तुत पंक्तियां भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक कविता से ली गई है। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि भूषण शिवाजी के शौर्य का बखान करते है कि शिवाजी का मलेच्छ पर उसी प्रकार राज है जिस प्रकार हवाओं का बादल पर भगवान शिव का रति के पति कामदेव पर और परशुराम का सहस्त्रबाहु पर है। इन पंक्तियों में भूषण ने शिवाजी के शौर्य की तुलना हवाओं, शिव और परशुराम के साथ की है।
35) दावा द्रुम-दंड पर चीता मृग – झुंड पर
भूषन बितुंड पर जैसे मृगराज है ।
प्रस्तुत पंक्तियां भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक कविता से ली गई है। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि भूषण जी ने शिवाजी के शौर्य का बखान करते है कि शिवाजी का मलेच्छ पर उसी प्रकार राज है जिस प्रकार जंगल को आग का वृक्ष की डालों पर, चीता का मृग पर और हाथी पर सिंह का राज है। इन पंक्तियों में भूषण ने शिवाजी के शौर्य की तुलना जंगल की आग चीता और सिंह के साथ की है ।
36) तेज तम अंस पर कान्ह जिमि कंस पर
यौ मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज है ।
प्रस्तुत पंक्तियां भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक कविता से ली गई है प्रस्तुत पंक्तियों में कवि भूषण जी ने शिवाजी के शौर्य का बखान करते हुए कहते हैं कि शिवाजी का मलेच्छ पर उसी प्रकार राज है जिस प्रकार उजाले का अंधेरे पर, कृष्ण का कंस पर राज है। इन पंक्तियों में भूषण ने शिवाजी के शौर्य की तुलना उजाले और कृष्ण के साथ की है।
37) निकसत म्यान ते मयूखै, प्रलै – भानु कैसी
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को
प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि भूषण के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक पाठ से लिया गया है। इस पंक्तियों में भूषण ने छत्रशाल की वीरता, धीरता और पौरुष का वर्णन किया है। कवि कहते है कि छत्रशाल की तलवार म्यान से इस प्रकार निकलती है जैसे प्रलयकारी सूर्य से उसकी किरणें निकलती है और हाथियों के जाल को इसप्रकार तितर बितर कर देती है जैसे सूर्य की किरणें अंधेरे को कर देती है
38) लागति लपकि कंठ बैरिन के नागिनि सी
रुद्रहि रिझावै दै दै मुडन की माल को ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि भूषण के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक पाठ से लिया गया है जिनमें कवि भूषण ने छत्रशाल की वीरता धीरता और पौरूष का वर्णन किया है। कवि कहते है कि हे राजन आपकी तलवार शत्रुओं के गर्दन से नागिन की तरह लिपट जाती है और शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें मुडों की माला अर्पित कर रही है
39) लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली
कहाँ लौं बखान करौं तेरी करवाले को ॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक पाठ से लिया गया है जिसमें कवि भूषण जी ने छत्रशाल की वीरता धीरता और पौरूष का वर्णन किया है । कवि कहते है कि हे बलिष्ठ और विशाल भुजावाले महाराज छत्रशाल मै आपकी तलवार का कहाँ तक बखान करूँ ? आपकी तलवार अत्यंत प्रलयंकारी है जो
40) प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि
कालिका सी किलकि कलेउ देति काल को
प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि भूषण जी के द्वारा रचित “कवित” शीर्षक पाठ से लिया गया है जिसमें कवि भूषण जी ने छत्रशाल की वीरता धीरता और पौरूष का वर्णन किया है । कवि कहते है कि हे राजन आपकी तलवार अंत्यंत प्रलयकारी है जो शत्रुओं के दल का संहार करती है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे काली को प्रसन्न करने के लिए प्रसाद देती है ।