VVI सारांश || Class 12 Bihar Board Exam



सारांश

(1). बातचीत- बालकृष्ण भट्ट           

 “बातचीत” शीर्तक एक प्रसिद्ध निबंध है। इसे आधुनिक काल के प्रसिद्ध निबंधकार बालकृ’ण भट्ट के द्वारा लिखा गया है। इस निबंध में लेखक ने वाक् शक्ति के बारे में बताया है। लेखक कहते है, कि बोलने की शक्ति एक ईश्वर का वरदान है। वे कहते है कि वाक्शक्ति अगर मनु’य में ना होती तो इस गुंगी सृष्टि का क्या होता। वे कहते है कि बातचीत में वक्ता को स्पीच कीतरह नाज-नखरा जाहिर करने का मौका नही दिया जाता है। वे कहते है, कि जैसे आदमी को जिंदगी मजेदार बनाने के लिए खाना पीना, घूमना फिरना, हॅसी मजाक की जरूरत होती है, वैसे ही बातचीत भी जीवन के लिए आवश्यक होता है। इससे मन हल्का और स्वच्छ हो जाता है, और हृदय से सारे मवाद निकल जाते है। बेन जॉनसन कहते है कि, बोलने से ही मनु’य का साक्षात्कार होता है। इस निबंध में लेखक ने बातचीत के प्रकार को भी बताया है। एडीसन मानते है कि असल बातचीत सिर्फ दो व्यक्तियों में ही हो सकती है। अर्थात जब दो लोग होते है तभी अपने दिल की बात खोल पाते है। लेखक के अनुसार तीन लोगों के बीच बातचीत अंगूठी में जुड़ी नग जैसी होती है। चार लोंगो के बीच बातचीत केवल फार्मलिटी होती है। लेखक कहते है कि, यूरोप के लोगों में बातचीत का हुनर है, जिसे आर्ट आफ कनवरसेशन (Art of conversation) कहते है। इनके प्रसंग को सुन के कान को अत्यंत सुख मिलता है। इसे सुहृद गोष्ठी कहते है। अंतत बालकृष्ण भट्ट कहते है कि हमें अपने अंदर ऐसी शक्ति पैदा करनी चाहिए जिससे हम अपने आप बातचीत कर ले और बातचीत का यही सबसे उतम तरीका है।  

(2.) उसने कहा था – चंद्रधर शर्मा गुलेरी

“उसने कहा था”शी कि कहानी चंद्रधर शर्मा गुलेरी के द्वारा लिखी गई एक अमर कहानी है। यह एक बहुत ही मार्मिक कहानी है, जिसकी शुरूआत अमृतसर के भीड़ भाड़ बाजार से शुरू होती है। इस कहानी में 12 साल का एक लड़का और 8 साल की एक लड़की को तांगे के नीचे आने से बचाता है। लड़का लड़की से पूछता है क्या तेरी कुड़माई हो गयी है, लड़की धत् कह के भाग जाती है। दोनों बाजार में अक्सर कभी सब्जीवाले तो कभी दूध वाले के यहाॅ मिलते रहते और लड़का बार-बार उससे यही प्रश्न पूछता की, क्या तेरी मगनी हो गई? लेकिन एक दिन सच मे उसकी सगाई हो जाती है तो लड़का बहुत ही उदास हो जाता है। २५ साल के बाद वही लड़का । सेना में भर्ती होता है जिसका नाम लहना सिंह होता है, वह अंग्रेजों की तरफ से फ्रांस में लड़ने जाता है। वही पर सेना में उसे सूबेदार हजारा सिंह, वजीरा सिंह और बोधा सिंह के बीच दोस्ती होती है। एक बार सूबेदार हजारा सिंह के बुलाने पर लहना सिंह सुबेदार के घर जाता है तो सुबेदारनी लहना सिंह को पहचान लेती है और उसे बुलाकर कहती है कि जिस प्रकार तुमने मेरी बचपन में मेरी जान बचायी थी वैसे ही तुम मेरे पति और बेटे को युद्ध में रक्षा करना । | तीनो देश से दूर यूरोप की भूमि पे पहुँचते है, और लड़ाई के उस मैदान में चुपके से लहना सिंह हजारा सिंह और बोधा सिंह का ध्यान रखते है। जब बोधा सिंह बीमार होते है, तो लहना सिंह स्वंय क’ट उठा कर उसका ध्यान रखते है। और अंत में युद्ध के दौरान लहना सिंह को जांघ में गोली लग जाती है और सुबेदार को कंधे पर गोली लग जाती है। तो लहना सिंह अपनी जान की परवाह ना करते हुए वह सुबेदार और उसके बेटे को घायल वाले सैनिक के गाड़ी में हॉस्पिटल पहुचवा कर सुबेदार का जान बचाते है। और इस प्रकार से लहना सिंह सुबेदारनी के बोल की लाज रख लेता है। अंततः लहना सिंह की युद्ध में मृत्यु हो जाती है । इस प्रकार से यह कहानी निश्छल प्यार. प्रेम. देशभक्ति की भावना को दर्शाता है।

(3.) संपूर्ण क्रांति – जयप्रकाश नारायण 

प्रस्तुत पाठ ‘संपूर्ण क्रांति’ जय प्रकाश नारायण के द्वारा दिया गया ऐतिहासिक भाषण का एक अंश है जिसे 05 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान में दिया गया था। यह भाषण उन्होने बिहार प्रदेश ‘छात्र संघ समिति’ के आग्रह पर ही संपूर्ण क्रांति आंदोलन की शुरूआत पर दिया था | संपूर्ण भाषण ‘जनमुक्ति’ पटना से प्रकाशित एक स्वतंत्र किताब में प्रकाशित किया गया है। भाषण सुनने के लिए लाखों की संख्या में लोग पूरे प्रदेश से आए थे जिसमें युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा थी। जय प्रकाश नारायण जी कहते हैं, कि अगर दिनकर जी और रामवृक्ष बेनीपुरी जी होते तो उनकी कविता भारत के नवनिर्माण के लिए क्रांति का काम करती लेकिन वो आज हमारे बीच नहीं है। जेव पीव जी के कहते है कि यह जिम्मेदारी मुझे यहाँ के नौजवानों के द्वारा  सौपी गई है। लेखक भाषण के आरंभ में युवाओं से कहते कि आजादी तो मिल गई लेकिन सुशासन के लिए हमें अभी काफी संघ’ करने पड़ेगें । वे कहते है कि हमें वर्तमान समय में भूख, मंहगाई, भ्रषटाचारजैसे दानव से लड़ने के लिए हमलोगों का आंदोलन करना होगा। लेखक आगे कहते है कि वह अपनी गरीबी के बावजूद अमेरिका जाकर उन्होनो वहॉ पढ़ाई किया और भारत वापस आकर वे कॉंग्रेस में शामिल हो गये। जयप्रकाश बाबू से मिलने बहुत सारे नेता आए और सबने एक तरफ उन्हें लोकतंत्र की शिक्षा दी तो दूसरी तरफ लोगों के जूलूस को रोका गया। जिसके कारण लेखककहते है जो लोकतंत्र की बातें करते है वही लोग लोकतंत्र को अपने पैरों से कुचलते है। वे इस भाषण में मार्क्सवाद और लेनिन की भी चर्चा करते है। वे इस भाषण में लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की भी बात करते है । लेखक के कुछ मित्र उनका और इंदिरा गाँधी जी का मेल मिलाप करवाना चाहते थे। लेकिन लेखक कहते है कि मेरा झगड़ा  इंदिरा जी से व्यक्तिगत नही बल्कि उनकी गलत नीतियों से है। लेखककई बार बापू और नेहरू जी की आलोचना भी करते है। वे कहते है कि आज राजनीति में भ्र ‘टाचार बढ़ा है जिसका प्रमुख कारण चुनावों का खर्चा है। आज के लोकतंत्र मे जनता को इतना ही अधिकार है कि वह चुनाव करें परंतु चुनाव के बाद वे अपने ही प्रतिलिधियो पर कोई अंकुश नही लगा सकते है। लेखक के अनुसार अन्य देशो मे प्रेस तथा पत्रिकॉए प्रतिनिधियो पर अंकुश लगाती है। लेकिन हमारे देश में इसका बहूत अभाव है | जयप्रकाश नारायण जी का ये भाषण मंत्रमुग्ध करने वाला था 

(4.) अर्धनारीश्वर – रामधारी सिंह दिनक

.”अर्धनारीशवर” के निबंधकार रामधारी सिंह दिनकर है। दिनकर जी कहते है कि, अर्धनारीश्वर शंकर और र्पावती का कल्पित रूप है, जिसका आधा अंग पुरूष और आधा नारी का होता है। दिनकर जी कहते है, कि नारी पुरूष गुणो का दृष्टि से समान है। एक का गुण दूसरे का दोहा नही है। प्रत्येक नर के अंदर नारी का गुण होता है, परंतु पुरुष स्त्रैण कहे जाने की डर से दबाये रखता है। अगर नारी मे वह विशे’ताएँ आ जाये जैसे दया, ममता, औदार्य, सेवा आदि तो उनका व्यक्तित्व धूमिल नही होता बल्कि और अधिक निखर जाता है। इसी तरह प्रत्येक स्त्री  में पुरूष  का तत्व होता है, परंतु सिर्फ उसे कोमल शरीर वाली, पुरू’ को आनंद देने वाली रचना, घर के चार दीवारो मे रहने वाली मानसिकता उसे अलग बनाती है, और इसलिए इसे दूर्बल कहे जाने लगा | समय बीतने के साथ ही पुरुऐ ने महिलाओं के अधिकार को दबाता गया। पुरूष और स्त्री के बीच अधिकार और हक का बँटवारा हो गया। महिलाओ को सिर्फ सुख का साधन समझा जाने लगा है। निबंधकार दिनकर जी कहते है कि प्रत्येक नर को एक हद तक नारी और नारी को एक हद तक नर बनना भी आवश्यक है। गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनो मे नारीत्व का भी साधना की थी। उनकी पोती ने उन पर जो पुस्तक लिखी है, उसका नाम ही ‘बापू मेरी माँ है ।’

(5.) रोज – सच्चिदानंद हीरानंद अज्ञेय

“रोज” शीर्षक कहानी के लेखक सच्चिदानंद हीरानंद है। इस बहुचर्चित कहानी में मध्यवर्ग भारतीय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन, उसकी मनोदशा, मानवयंत्र जैसा जीवन का चित्रण किया गया है। कहानी आत्मकथा शैली में है। इसमें चार पात्र है लेखक; सच्चिदानंदद्ध, मालती; लेखक की बहन, टीटी; मालती का बेटा और महेश्वर; मालती का पति। मालती लेखक की दूर की बहन होती है। मालती का विवाह एक डाव से हो जाता है। चार साल बाद लेखक मालती से मिलने उसके घर जाते है। वहाँ पर लेखक मालती के घर के उदास बातावरण को देखता है। लेखक मालती से बातचीत करते है। वह लेखक को पंखा झेलती है। उसके पति गाँव के ही एक डिस्पेंसरी में डाक्टरी का काम करते है। वह गाँव वाले का छोटा मोटा इलाज करता है। वह हमेशा 3 बजे खाना खाता और रात में 10 बजे खाना खाता है। मालती अपने पति के समयनुसार सारे काम को निर्धारित करती है। जैसे पति का इंतजार करना, नल में पानी आने का इंतजार, बर्तन मॉजने आदि । कुछ घंटो के बाद मालती का पति डिस्पेंसरी से वापस घर खाने पर आता है। लेखक उसके पति मिलते है। लेखक का परिचय उनके पति से होता है। मालती बचपन में काफी चंचल और बाबली थी, लेकिन शादी के बाद उसके चेहरे पर उदासी छा जाती है। उसका व्यक्तित्व भी बुझ जाता है। कोई भी मेहमान के आने पर कोई चहल पहल नही होती है। लेखक और महेश्वर दोनों एक दुसरे से खाना खाते समय बात करते है। और अंत में लेखक चले जाते है। इस कहानी में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि बहुत सभी महिलाये है जो अपनी जिंदगी जीती नही बल्कि ढ़ोती है। कुल मिलाकर यह कहानी आधुनिकता के आइने में व्यक्तिगत अस्मिता और मशीनी जीवन के त्रासद अंत: संघर्ष के बारे में बाताता है।

(6.) एक लेख और एक पत्र-भगत सिंह

भगत सिंह “विद्यार्थी और राजनीति” के माध्यम से बताते हैं कि विद्यार्थी को पढ़ने के साथ ही राजनीति में भी दिलचस्पी लेनी चाहिए । यदि कोई इसे मना कर रहा है तो समझाना चाहिए कि यह राजनीति के पीछे घोर षडयंत्र है, क्योंकि विद्यार्थी युवा होते हैं। उन्हीं के हाथ में देश की बागडोर है । भगत सिंह व्यवहारिक राजनीति का उदाहरण देते हुए नौजवानों को यह समझाते हैं कि महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, और सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना यह व्यवहारिक राजनीति नहीं तो और क्या है । इसी बहाने वे हिन्दुस्तानी राजनीति पर तीक्ष्ण नजर भी डालते हैं। भगत सिंह मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश सेवकों की जरूरत हैं जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी या उसके विकास में न्योछावर कर दे क्योंकि विद्यार्थी देश – दुनिया के हर समस्याओं से परिचित होते हैं। उनके पास अपना विवेक होता है। वे इन समस्याओं के समाधान में योगदान दे सकते हैं। अतः विद्यार्थी को पॉलिटिक्स में भाग लेनी चाहिए । उन्होंने आत्महत्या को एक घृणित अपराध है यह एक कायरता का प्रतीक है 

(7.) ओ सदानीरा – जगदीशचंद्र माथुर 

ओ सदानीरा चंपारण की भूमि पर लिखा गया एक यात्रा – स्मरण है। यह निबंध जगदीश माथुर जी के द्वारा लिखा गया है। लेखक कहते है कि इस पावन भूमि पर अनेक महान व्यक्तियों का कर्मस्थली रहा है। कालान्तर में बाहर से अनेक आक्रमणकारी तथा अन्य प्रदेशों के अनेक जनजातियाँ आये और बस गये। यह धरती विभिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल है। महात्मा गाँधी जी यहाँ पर अपने पावन कदम रखे और अनेक विद्यालय, आश्रम बनवाये । यहाँ पावन गंडक नदी बहती है। यहाॅ अनेक तीर्थो के अवशेष और समाधियाँ बिखरी पड़ी है। यहाँ पर भारतीय इंजीनियर और मजदूर गंडक घाटी में 120 मील लम्बी नहर बना रहे है। भैसालोटन में लगभग 3000 फुट लम्बा बैराज बन रहा है। अंत में लेखक जगदीश माथुर जी गंडक नदी को ओ सदानीरा, ओ चक्रा, ओ नारायणी, ओ मत गंडक आदि नामों से पुकारते है।

(8.) सिपाही की मां – मोहन राकेश    

सिपाही की माँ एक बहुत ही मार्मिक एकांकी है। यह एकांकी एकांकीकार मोहन राकेश के द्वारा लिखी गई है। यह एकांकी अंडे के छिलके अन्य एकांकी से ली गई है। इस एकांकी में एक मॉ बिशनी एक बेटी मन्नी एक बेटा मानक है। मानक एक सिपाही है जो बर्मा के यह में लड़ने के गया हुआ है। वह अपनी माँ का एकलौता कमाने वाला था 

(9). प्रगीत और समाज – नामवर सिंह 

प्रस्तुत निबंध में नामवर सिंह प्रगीत के उदय के ऐतिहासिक और समाज कारणों की पड़ताल करते हैं। उनका मानना है कि प्रगीत हिन्दी की अपनी लोकपरक जातीय काव्य संवेदना का आधुनिक विकास है। मुक्तकों में भी जीवन का यथार्थ अपनी पूरी इयता के साथ उपस्थित होता है । हिन्दी कविता का जातीय इतिहास मूलतः प्रगिता का इतिहास है । जातीय इतिहास से यहा तात्पर्य है – हिन्दी भूमि के जनमानस से संबंध कविता रूपों के विकास का इतिहास है। विद्यापति जिसे, इस आधार पर हिन्दी का पहला कवि माना जाता है, ने गीतों से ही अपनी रचनयात्रा आरंभ कि थी। उनकी परंपरा का विकास संतों और भक्तों की प्रगीतात्मक वाड़ियों में लक्षित किया जा सकता है । तुलसी के विनय पत्रिका के अलावा कबीर, सुर, मिरा, नानक, रैदास आदि ने लोकभाषा की परिष्कृत गीतात्मक से प्राण ग्रहण करते हुए अपने प्रगीतात्मक काव्य रचे | इन प्रगीतों की चरम वैयक्तिकता ही परम समाजिकता के रूप में प्रतिफलित हुई और भक्ति काव्य एक आंदोलन के रूप में जनमानस के लिए प्रेरणास्त्रोत बना | वे इसका विकास  काल तक देखते हुए बताते हैं हिन्दी की आधुनिक आधुनिक काल तक देखते हुए बताते हैं हिन्दी की आधुनिक कविता एक प्रगीतात्मक सौन्दर्यशस्त्र को विकसित कर रही है । यह न तो व्यक्तिक की आंतरिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को प्रकट करने में संकोच कर रही है और न हीन ही बाहर का अथार्थ का रचनात्मक सामना करने में हिचक रही है। अंदर न तो किसी असंदिग्ध विश्वदृष्टि का मजबूत खूटा गाड़ने का जिद है और न ही बाहर को एक विराट में आकने की हवस | बाहर छोटी से छोटी घटना, स्थिति, वस्तु आदि पर नजर है और कोशिश है उसे अर्थ देने की । इसी तरह बाहर की प्रतिक्रियास्वरूप अंदर उठने वाली छोटी से छोटी लहर को भी पकड़कर उसे शब्दों में बांध लेने का उत्साह आर्थत आधुनिक कविता न तो रोमांटिकता की हद तक व्यक्तिवादी, आत्मपरक और कलावादी है और न ही सामाजिक यथार्थ के प्रति यांत्रिक रूप से संवेदित | यह कविता किसी जड़ीभूत सौन्दर्यभिरुचि की जगह व्यक्ति और समाज के द्वन्दात्मक सम्बन्धों को उनके संश्लेष में देख रही है। यहाँ किसी प्रकार का पूर्वाग्रह और दुराग्रह नही है बल्कि एक वस्तिविक लोकतान्त्रिक कलाबोध आधुनिक कविता की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है। प्रगीतों की इस आधुनिक उन्नयन के क्रम में शमशेर, त्रिलोचन नागार्जुन, तथा केदारनाथ सिंह का करता हुआ यह निबंध कविता के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के एक प्रतिदर्श में देखा जा सकता है।

(10.) जूठन – ओमप्रकाश बाल्मीकि    

जूठन ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के द्वारा लिखा गया एक आत्मकथा है। वह इस आत्मकथा में बताते है कि जब वह छोटा थे तो स्कूल का हेडमास्टर कलीराम उससे झाडू लगवाता था। लेखक के घर में उनके पिता, मॉ, बड़े भाई, बड़ी बहन, और भाभी होते है। उनके परिवार के सदस्य दुसरे घरों में काम किया करते थे। और उन्हें इन कामों के बदले दो जानवर, पॉच सेर अनाज और दोपहर के समय बची खुची रोटी। औमप्रकाश के घर की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि एक एक पैसे के प्रत्येक परिवार के सदस्य को खटना पड़ता था। उन्हें मरे हुए जानवरो के खाल तक उतारना पड़ता था। लेखक अपने घर की स्थिति को देखते हुए पढ़ाई करने का संकल्प करते है और ध्यान से पढ़ाई करके हिन्दी में स्नातकोत्तर करने के बाद उन्हे अनेक सम्मान जैसे-डा अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, परिवेश सम्मान, जयश्री सम्मान, कथाक्रम सम्मान से विभूषित करके उन्हें सरकार ने आर्डिनेंस फैक्ट्री में अधिकारी पद से विभूषित किया उन्होनें अनेक आत्मकथा, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, आलोचना की रचनाएँ लिखी। उन्होने महाराष्ट्र में मेघदूत नामक नाट्य संस्था को स्थापित करके अनेक अभिनय और मंचन का निर्देशक भी किया।

(11.) हंसते हुए मेरा अकेलापन-मलयज

“हँसते हुए मेरा अकेलापन” शीर्षक डायरी मलयज जी के द्वारा लिखी गई एक बेहतरीन रचना है। मलयज अत्यन्त आत्मसजग किस्म के बौद्धिक व्यक्ति थे । डायरी लिखना मलयज के लिए जीवन जीने जैसा था । यह डायरी मलयज के समय की उथल पुथल और उनके निजी जीवन की तकलीफों – बेचैनियों के बारे में बताती है 

प्रस्तुत डायरी के अंश की प्रथम डायरी में मलयज ने प्रकृति एवं मनुष्य के बीच सम्बद्ध स्थापित करने का प्रयास किया है । वे रानीखेत के मिलिट्री की छावनी में वृक्ष काटे जाने के बारे में बताते हैं । लेखक को वृक्षों के एक गिरोह में एकता दिखती है। दूसरे डायरी में लेखक ने मनुष्य के जीवन की तुलना खेतों की फसलों से की है। मनुष्य का जीवन फसल के समान बढ़ता, पकता एवं कटता हुआ  दिखायी देती है। 

तीसरे डायरी में लेखक ने चिट्ठी की उम्मीद में और चिट्ठी नहीं आने पर अपनी मनोदशा का वर्णन करते है। चिट्ठी नहीं आने पर उनके जीवन में एक अजीब बेचैनी मन में रहती है 

चौथी डायरी में लेखक ने बलभद्र ठाकुर नामक एक लेखक का चित्रण किया है और बताने का प्रयास किया है कि एक लेखक कितना सरल एवं मिलनसार होता है । लेखक कसौनी में कुछ दिनों तक रहते हुए जीवन का आनंद लेते है। उन्होंने कसौनी के दो शिक्षकों का भी चित्रण किया है वे उनके सहज एवं सामाजिक स्वभाव के बारे में भी बताते है। पाँचवी डायरी में भी लेखक ने कौसानी के प्राकृतिक एवं शांत वातावरण का चित्रण किया है। छठी डायरी में मलयज ने एक सेब बेचनेवाली किशोरी का चित्रण बड़ी ही कुशलतापूर्वक किया है । किशोरी इतनी भोली थी कि सेव बेचने में उसका भोलापन दिखता है 

सातवीं डायरी में मलयज यथार्थवादी दिखायी देते हैं। उनके अनुसार रचने और भोगने का रिश्ता एक द्वंद्वात्मक रिश्ता है । आठवीं डायरी में लेखक ने शब्द एवं अर्थ के बीच निकटता का वर्णन किया है । लेखक का कहना है कि शब्द अधिक होने पर अर्थ कम होने लगता है और अर्थ की अधिकता में शब्द की कमी होने लगती है अर्थात् शब्द अर्थ में और अर्थ शब्द में बद्ले चले जाते हैं। नवीं डायरी में लेखक ने पर अपना विचार व्यक्त किया है। वे कहते है की कोई व्यक्ति की सुरक्षा रौशनी में हो सकती है, अँधेरे में नहीं। अँधेरे में सिर्फ छिपा जा सकता है। सुरक्षा चुनौती को झेलने में ही है, बचाने में नहीं। अतः, आक्रामक व्यक्ति ही अपनी सुरक्षा कर सकता है । दसवीं डायरी में लेखक ने रचना और दस्तावेज में भेद एवं दोनों में पारस्परिक सम्बंध को चर्चा की है । लेखक के अनुसार दस्तावेज रचना का कच्चा माल है । ग्यारवीं डायरी में लेखक ने मन में पैदा होने वाले डर का वर्णन किया है। लेखक अपने को भीतर से डरा हुआ व्यक्ति मानता है। मन का हर तनाव पैदा करता है, संशय पैदा करता है। किस की प्रतीक्षा की घडी बीत जाने पर मन में डर पैदा होता है । डर कई प्रकार के होते हैं। मनुष्य जैसे- जैसेजीवनरूपी समस्याओं से घिरता जाता है, उसके मन में डर की मात्रा भी बढ़ती जाती है। अंतिम डायरी में लेखक ने जीवन में तनाव के प्रभाव का वर्णन किया है। मनुष्य जीवन में संघर्षों का सामना करते समय तनाव से भरा रहता है । इस प्रकार प्रस्तुत डायरी के अंश में मलयज ने अपने जीवन के संघर्षों एवं दुखों की और इशारा करते हुए मानव जीवन में पायी जानेवाली सहज समस्याओं का चित्रण बड़ी कुशलता से किया है। 

(12.) तिरिछ – उदय प्रकाश            

‘तिरिछ’ कहानी का केन्द्रीय भाव लेखक के पिताजी से सम्बन्धित है । इसका संबंध लेखक के सपने से भी है । इसके अतिरिक्त, शहर के प्रति जो जन्मजात भय होता है उसकी विवेचना भी इस कहानी में की गई है। गाँव एवं शहर की जीवन शैली का इसमें तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त सफलतापूर्वक किया गया है। गाँव की सादगी तथा शहर का कृत्रिम आचरण इसमें प्रतिबिंबित होता है। लेखक के पिताजी जो पचपन साल के वयोवृद्ध व्यक्ति हैं, उनकी विशिष्ट जीवन शैली है। वह मितभाषी हैं। उनका कम बोलना,हमेशा मुँह में तम्बाकू का भरा रहना भी है। बच्चे उनका आदर करते थे तथा उनकी कम बोलने की आदत के कारण सहमे भी रहते थे। घर की आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं थी । एक दिन शाम को जब वे टहलने निकले तो एक विषैले जन्तु तिरिछ ने उन्हें काट लिया। उसका विष साँप की तरह जहरीला तथा प्राणघातक होता है। रात में झाड़-फूंक तथा इलाज चला दूसरे दिन सुबह उन्हें शहर की कचहरी में मुकदमें की तारीख के क्रम में जाना था। घर से वे गाँव के ही ट्रैक्टर पर सवार होकर शहर को रवाना हुए। वे तिरिछ द्वारा काटे जाने की घटना का वर्णन ट्रैक्टर पर सवार अन्य लोगों से करते हैं। ट्रैक्टर पर सवार उनके सहयात्री पं० राम अवतार ज्योतिषी के अलावा वैद्य भी थे। उन्होंने रास्ते में ट्रैक्टर रोककर उनका उपचार किया। धतूरे की बीज को पीसकर उबालकर काढ़ा बनाकर उन्हें पिलाया गया । ट्रैक्टर आगे बढ़ा तथा शहर पहुँचकर लेखक के पिताजी ट्रैक्टर से उतरकर कचहरी के लिए रवाना हुए। शाम तक जब पिताजी घर नहीं लौटे , गाँव के मास्टर नंदलाल, जो उनके साथ थे, उन्होंने बताया । इस बीच वे स्टेट बैंक की देशबंधु मार्ग स्थित शाखा, सर्किट हाउस के निकट वाले थाने में गए । उक्त स्थान पर उन्हें अपराधी प्रवृत्ति तथा आसामाजिक तत्व समझकर कर काफी पिटाई की गई और वे ललुहान हो गए। अंत में वे इतवारी कॉलोनी गए । किन्तु वहाँ उन्हें पागल कर कॉलोनी के छोटे-बड़े लड़कों ने उनपर पत्थर समझकर कॉलोनी के छोटे-बड़े लड़कों ने उनपर पत्थर बरसाकर रही – सभी कसर निकाल दी। उनका सारा शरीर लहु – लुहान हो गया। घिसते- पिटते लगभग शाम छः बजे सिविल लाइंस की सड़क की पटरियों पर बनी मोचियों की दुकान में से गणेशवा मोची की दूकान के अन्दर चले गए । गणेसवा मोची उनके बगल के गाँव का रहनेवाला था । उसने उन्हें पहचाना । कुछ ही देर में उनकी मृत्यु हो गई । इस कहानी में लेखक ने दूषित मानसिकता से ग्रसित शहरी जीवन – शैली के बारे में बताते है जो ” तिरिछ ” की तरह भयानक तथा विषैली है। 

(13.) शिक्षा – जे कृष्णमूर्ति            

शिक्षा जे. कृष्णमूर्ति के द्वारा लिखी गई “संभाषण” है लेखक कहते है की शिक्षा मनुष्य के विकास में सहायता करती है। वह जीवन के सत्य, जीवन जीने के तरीके में मदद करती है । वे कहते है की  जीवन विलक्षण होता है  । ये पक्षी, ये फूल, ये वैभवशाली वृक्ष, यह आसमान, ये सितारे, ये मत्स्य यह सब हमारा जीवन है। जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सतत् संघर्ष है, जीवन ध्यान है, जीवन धर्म भी है। जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ वासनाएँ, भय, सफलताएँ, चिंताएँ । शिक्षा इन सबका अनावरण करती है । शिक्षा का कार्य है कि वह संपूर्ण जीवन प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करे, न कि हमें केवल कुछ व्यवसाय या ऊँची नौकरी के योग्य बनाएँ । कृष्णमूर्ति कहते हैं कि हमें बचपन से ही ऐसे वातावरण में रहना चाहिए जहाँ भय का वास न हो नहीं तो व्यक्ति जीवन भर के लिए कुंठित हो जाता है। उसकी महत्वाकांक्षाएँ दब कर रह जाती है। मेधाशक्ति दब जाती है। मेधा शक्ति के बारे में कहते हैं कि मेधा वह शक्ति है जिससे आप भय और सिद्धांतों की अनुपस्थिति में आप स्वतंत्रता से सोचते हैं ताकि आप सत्य की वास्तविकता की अपने लिए खोज कर । पूरा विश्व इस भय से सहमा हुआ है । चूँकि यह दुनिय वास्तविकता का अपन लिए खाज कर सक । पूरा विश्व इस भय से सहमा हुआ है । चूँकि यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है । यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है। किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा सम्मान शक्ति व आराम के लिए संघर्ष कर रहा है । अत: निर्विवाद रूप से शिक्षा का कार्य यह है कि वह इस आंतरिक और बाह्य भय का अंत करे ।










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